'गीतकाव्य में केवल महान क्षण रहा करता है। यह वह क्षण होता है जिसमें प्रकृति और आत्मा की सार्थक एकता या उनका सार्थक अलगाव जो आत्मा का सर्वस्वीकृत
अकेलापन हुआ करता है,
शाश्वत बन जाते है।
...गीतमय क्षण में आत्मा की शुद्धतम आभ्यंतरिकता अनिवार्यतः काल से पृथक कर दी जाती है,
वस्तुओं की अस्पष्ट विविधता से ऊपर उठा दी जाती है और इस तरह पदार्थ में परिवर्तित कर दी जाती है,
जबकि अपरिचित और अज्ञेय प्रकृति भीतर से निकाल दी जाती है ताकि चमकते हुए एक प्रतीक में बंध सके। आत्मा और प्रकृति के बीच स्थापित इस संबंध को केवल गीतमय
क्षणों में ही निर्मित किया जा सकता है।'
-
जार्ज लुकाच : उपन्यास का सिद्धांत,
पृ. 77।
"
सुख-दुख
के
भावावेशमयी
अवस्था
विशेष
का
गिने-चुने
शब्दों
में
स्वर
साधना
के
उपयुक्त
चित्रण
कर
देना
ही
गीत
है। ...इसमें
कवि
को
संयम
की
परिधि
में
बंधे
हुए
जिस
भावातिरेक
की
आवश्यकता
होती
है
,
वह
सहज
प्राप्य
नहीं
,
कारण
हम
प्रायः भाव
की
अतिशयता
में
कला
की
सीमा
लाँघ
जाते
हैं
और
उसके
उपरांत
भाव
के
संस्कार
मात्र
में
मर्मस्पर्शिता
का
शिथिल हो जाना अनिवार्य है। ...हिंदी काव्य का वर्तमान नवीन युग गीत-प्रधान ही कहा जाएगा।"
-
महादेवी वर्मा : यामा,
पृ. 6।
"
एक गाया जाने वाला पद अथवा गाया जा चुका गीत असीमित संदर्भ प्रक्षेपित करता है। उस घट चुके समय में गुंजरित शब्द,
शब्द मात्र नहीं रह जाता। शब्द से थोड़ा ऊपर उठकर कुछ संभावनाओं के जन्म का द्वार खोलता है।"
-
यतींद्र मिश्र : गिरिजा,
पृ. 24।
गीत एक आदिम काव्यविधा है, जिसका सीधा संबंध 'गायन-योग्य मनोदशा' से है। जब यह मनोदशा स्वतःस्फूर्त ढंग से पैदा होती है तो मन में एक प्रकार की समस्वरता आ जाती
है, जिसका प्रभाव आदमी के मुखमंडल पर सहज रूप में लक्षित होने लगता है। सामान्य जन की इस गायन-योग्य मनोदशा का मूर्तन एकांत में और संग-साथ में भी, प्रायः किसी
पर्व-त्योहार या मांगलिक उत्सव आदि के समय देखा-सुना जाता है। इतना ही नहीं, कठोर श्रम करते हुए किसी श्रमिक या श्रमिक समुदाय द्वारा कुछ गुनगुनाते हुए
तल्लीनतापूर्वक अपना कार्य संपादित करते रहने की प्रक्रिया में भी इसे देखा-परखा जा सकता है। 'गीत' की वैधानिक संरचना पर सैद्धांतिक चर्चा करते हुए कुछ गीतकारों
एवं आलोचकों ने इस 'गायन-योग्य मनोदशा' को 'शब्द की लय' एवं 'अर्थ की लय' के बजाय 'मनोलय' के रूप में चिह्नित किया है, जो गीत की मूलभत ऊर्जा है। कहना न होगा कि
गायन-योग्य यह मनोदशा ध्वनि-शब्द का आधार लेकर ही गीत के रूप में व्यक्त होती है। वस्तुतः किसी रचना के गीत होने के लिए उसमें भावों की तीव्रता तथा उनकी एकतानता
का होना अनिवार्य है, क्योंकि इसी से उस मनोलय का जन्म होता है, जो गीत का प्राण-तत्व है।
'कविता कुसुम माला' (जून, 1909, प्र.सं.) की भूमिका में लोचन प्रसाद पांडेय ने काव्य में तीन प्रकारों की चर्चा की थी : गीति काव्य, श्रव्य काव्य और दृश्य
काव्य। स्पष्ट ही उन्होंने काव्य के दो परंपरागत भेदों (श्रव्य और दृश्य) से गेय अथवा गीतिकाव्य को अलग कर काव्य का एक तीसरा भेद भी माना था। संभवतः तब उनकी
जानकारी में आधारस्वरूप केवल पूर्वागत गीति-परंपरा ही थी, जिसमें कथा-गीति से छंदबद्ध स्फुट रचनाओं के सभी नमूने और गेयता के तत्वों से संपन्न छोटे गीत भी एक
साथ थे और उन्हें कल्पना ही नहीं थी कि विद्वान आलोचकों औेर प्रातिभ गीतकारों के बीच अहमहमिका के फलस्वरूप कालांतर में 'गीत काव्य', 'गीतिकाव्य' से अलग हो जाएगा
- ठीक उसी प्रकार जैसे 'सांग लिरिक' विदेशों में 'लिरिक' से अलग हो चला है, जबकि दोनों का मूल 'लायर' नामक वाद्य यंत्र ही है। संस्कृत में तो 'गीति' एक
छंद-विशेष है, जो गान-पद्धति के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। वस्तुतः 'गीति' गायन के किसी विशेष निकाय की प्रकृति है न कि उसके योग्य शाब्दिक रचना की लयात्मक
पहचान। आरंभिक अर्थध्वनि पर ध्यान देने से स्पष्ट होता है कि 'गीत' की अंतःप्रकृति एवं अनिवार्य चरितार्थता 'गीति', संगेयता की पहचान अर्थात गीत-कला की हैसियत
से कलावस्तु 'गीत' में अनुस्यूत होती है।
'गीति' और 'गीत' की यह बहिरंतर एकमेकता गीतकाव्य के समानांतर 'लिरिक पोएट्री' के स्वीकार से ही धीरे-धीरे खंडित हो चली। छठे दशक में प्रबंध काव्य के प्रभेदों से
विलग 'लिरिक' के अर्थ में, हर तरह की वाचिक कविता, जिसमें लय का निर्वाह होता था, गीति काव्य की परिधि में पहचानी जाती थी और 'सांग' के अर्थ में मात्र गेय-संगेय
छोटी कविता 'गीत' कही जाती थी। छठे दशक से 'गीति' और 'गीत' में भ्रामक अंतर पर बहस रुक गई और रचनाकार एवं प्रस्तोता की ओर से कविता के दो ही व्यवहारिक भेद रह गए
- वाचिक और गेय। चूँकि ये दोनों व्यावहारिक भेद थे इसलिए प्ररूपगत हुए। जाहिर है कि लोचन प्रसाद पांडेय को 'श्रव्य' और 'दृश्य' से 'गेय' का, या उनके अनुसार
गीतिकाव्य का इतर बोध वहाँ तक नहीं था कि वे गेय काव्य की भिन्न रचना-प्रक्रिया और अभिग्रहण-प्रक्रिया का भी विवेचन-विश्लेषण कर सकते। फिर भी उन्होंने उसी वक्त
आज के विचारकों के लिए गेय कविता की अलग पहचान का प्रश्न उठा दिया था।
'गीत' शब्द का मूलार्थ है - 'गाया हुआ', अर्थात गान का गायनोत्तर गुण (विशेषण)। इस तर्क का अवशिष्ट प्रमाण 'गीता' के शब्दार्थ में भी है - 'गाई हुई कथा।' यहाँ
ध्यातव्य है कि पहले 'गेय' शब्द 'गायन-योग्य संरचना' और ऐसी संरचना की 'गायन-योग्यता', दोनों अर्थों में प्रचलित था, जिसके पूर्व ही 'गान' संज्ञा और क्रिया की
भूमिका में था। बाद में गाई हुई संरचना के लिए 'गीत' विशेषण प्रयुक्त हुआ। संभवतः 'गेयता' भी रचना में गाने की परंपरा के द्वारा ही सिद्ध हुई। तभी पहले जनसमूह
ने और बाद में आचार्यों ने 'गीत' विशेषण को ही गेय वस्तु के लिए संज्ञा की भूमिका में स्वीकृत किया। इस अर्थ में 'गीत' शब्द के रूढ़ होते ही 'गेय' शब्द संज्ञा की
भूमिका छोड़कर विशेषण मात्र रह गया। जाहिर है कि 'गेय' शब्द कंठ-स्वर-संयोजन के अनेक प्रकारों में अगेय के विपरीत सारे प्रकारों का लक्षण है। इस मीमांसा के
अनुसार 'गेय' शब्द कंठ से लय में स्वरित किए जाने की योग्यता से गीत के अस्तित्व को ही अनेक बार एकमेक कर देता है। फलतः गीत के नाट्यशास्त्रीय प्राचीन षड्विध
लक्षणों में स्वर, रस, राग, मधुराक्षर, अलंकार एवं मनोदशा की प्रामाणिकता का विधान किया गया है।
सुस्वरं सरसंचैव सरागं मधुराक्षरम्।
सालंकारं प्रमाणं च षड्विध गीत लक्षणम् ।।
अतः यह कहना अनुचित न होगा कि अगेयता के आग्रह से 'अगीत', जो 'अकविता' के वजन पर गढ़ा गया, 'एंटी सांग' है। 'गेय' - जब गानार्थक भूमिका में - 'गीत' को 'प्रीसीड'
करेगा तब निश्चित रूप से गेय मनोभाव से उत्पन्न तथा गान-चेष्टा के साथ विरचित कविता, अगेयात्मक रचनाशीलता से निर्मित कविता से पूरी भाषिक एवं वैधानिक संरचना एवं
प्रक्रिया में भिन्न होगी। वह गायन के द्वारा ही उपर्युक्त ढंग से प्रस्तुत्य और सहानुभव के द्वारा ही ग्राह्य होगी। कहना न होगा कि गीत की संप्रेषणीयता और उसके
साधारणीकरण की यह विशेषता वाचिक या वैचारिक कविता से खुद को अलगा लेती है, क्योंकि जहाँ पाठक या श्रोता वाचिक कविता की अर्थसंगति का प्रभाव सहज अनुषंग से ग्रहण
करता है वहीं गीत का श्रोता स्वर और लय की प्रतिध्वनि से उत्पन्न अनुबोध एवं आसंग से उसका तत्काल श्रवणकर्ता-मात्र न रहकर तत्क्षण ही मनोभागी हो जाता है। दूसरे
शब्दों में, गीतकाव्य का ग्रहणकर्ता, प्रस्तोता की भाव-भंगिमा का दर्शक और शब्द-रचना का श्रोता होते हुए भी अनुषंग-मात्र से अर्थ-संगति ढूँढ़ने और चरितार्थता की
अपेक्षा में रुके रहने के बजाए गीत में प्रस्तुत मनोलय के सूत्र से अपनी मनोलय को जोड़कर रचना से एकतानता प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार वह गीत में व्यंजित
मनःस्थिति और किसी अनुपात में उसकी रचना-प्रक्रिया का भी भागीदार बनकर अपने जीवनानुभवों को तत्क्षण ही सजग एवं स्वरित अनुभव करने लगता है। या यूँ कहें कि वह गीत
का सहभोक्ता और अंततः उसका प्रकट या प्रच्छन्न अनुगाता हो जाता है। गीतकाव्य का यह अनुगाता, जो उसका ग्रहणकर्ता, श्रोता या प्रकाशित हो जाने के बाद पाठक भी है,
अपनी एवं प्रस्तोता की ओर से गेयकाव्य मनःसंश्लेष को मनोलय की एकतानता के द्वारा स्वकीय कर लेता है। दूसरे शब्दों में, गीत भी गान-लय के संप्रेषण से किसी भी
अनुगाता का स्वकीय हो जाता है। अतः गान (विशेषतः सवाद्य गान) के पूरे संगीत की संलयात्मक भूमिका का निर्वाह करने की क्षमता केवल गीत की संरचना में होती है,
वाचिक कविता में नहीं। इसलिए मानना पड़ेगा कि संगीत-रचना का, विशेषतः कंठ-गान का मनोवैज्ञानिक पक्ष भी गीत की रचना-प्रक्रिया में दूर तक सक्रिय रहता है। साथ ही,
गाने की इच्छा एवं मनःस्थिति गायन-योग्य सामग्री के रचने की मनःस्थिति से भी जुड़ती है और इस प्रकार संगीत का मनोविज्ञान दोनों पर लागू होता है। कहा जा सकता है
कि संगीत के मनोविज्ञान से गीत की संरचना किसी न किसी रूप में अवश्य अनुकूलित होती है।
संगीत को 'प्रत्यक्षदर्शनात्मक प्रतीक' के रूप में स्वीकारते हुए सुसन लैंगर ने 'फीलिंग एण्ड फार्म' पुस्तक में लिखा है कि उसे किसी भी तरह भाषा नहीं कहा जा
सकता, क्योंकि भाषा मे प्रयुक्त शब्दों का अपना निश्चित शब्दकोशीय अर्थ होता है जबकि संगीत में न तो शब्द-संग्रह होता है और न ही उसके घटकों का कोई निश्चित अर्थ
ही। इसी प्रकार संगीत में जो व्यक्त होता है वह भाषा के माध्यम से कभी व्यक्त नहीं हो सकता। लैंगर ने संगीत को भावनाओं की अभिव्यंजना मानने से इनकार करते हुए
कहा है कि संगीत के इतिहास में सतत विकसित होने वाले रूपों को महत्व प्राप्त हो जाता है, भाषाभिव्यंजना को रूप की तनिक भी आवश्यकता नहीं होती। संगीत के कारण
भावों की अभिव्यंजना या भावजागृति हो तो उसका महत्व नहीं है। संगीतकार भावनाओं की व्यंजना नहीं करता या सुनने वाले के सहानुभव का आवाहन नहीं करता, वह देता है
भावनाओं के रूपों का ज्ञान। गौरतलब है कि सुसन लैंगर की ये तमाम अतिवादी स्थापनाएँ सुप्रसिद्ध रूपवादी विचारक क्लाईव बेल द्वारा कला-चिंतन के क्रम में प्रवर्तित
'सार्थक रूप' की अवधारणा को पुष्ट करने के दौरान दी गईं। लैंगर की अवधारणा में संगीत की तरह अन्य कलाओं को भी अभाषिक, प्रत्यक्ष-दर्शनात्मक प्रतीकों के माध्यम
से भावनाओं की बनावट एवं रूप की अभिव्यक्ति माना गया है।
प्रभावान्विति की दृष्टि से संगीत को कला की पराकाष्ठा के रूप में स्वीकारते हुए डॉ. नामवर सिंह ने लिखा है कि 'हर कलाकार की यह सबसे बड़ी आकांक्षा रही है कि
उसकी कलाकृति संगीत की हद को छू ले। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए चित्रकारों ने यदि चित्रकला को अधिक से अधिक ज्यामितिक रूपाकारों में बदलने की कोशिश की तो
मलार में जैसे प्रतीकवादी कवियों ने भाषा की सीमा में रहते हुए भी कविता को संगीत बनाने का प्रयत्न किया।' (कहानी : नई कहानी, पृ. 72) नामवर जी से ही
विचार-सूत्र लेकर यदि कहें तो सच्चा गीतकार गीत-रचना के दौरान संगीत का उपयोग केवल वातावरण-चित्रण के लिए ही नहीं करता, बल्कि संगीत के उस रागधर्म को भी व्यक्त
करता है जिसके तहत रचना का कथ्य अपनी पृथक सत्ता खोकर संवेद्य के रूप में तत्वांतरित हो जाता है। दूसरे शब्दों में सच्चे गीतकार के यहाँ संगीत अनुभवों को अर्थ
प्रदान करता है। सच तो यह है कि गीतकाव्य के लिए संगीत केवल अलंकरण नहीं होता, बल्कि उसकी संपूर्ण रचना-प्रक्रिया ही संगीतधर्मी होती है। इस संदर्भ में
मुक्तिबोध ने लिखा है कि "काव्य की रचना-प्रक्रिया के अंतर्गत तत्व-बुद्धि, भावना, कल्पना आदि-एक होते हुए भी प्रभाव-संगठन उद्देश्यों की भिन्नता के साथ ही
रचना-प्रक्रिया भी, वस्तुतः बदल जाती है। गेय काव्य (लिरिकल पोएट्री) की रचना-प्रक्रिया उस कविता की रचना-प्रक्रिया से बिल्कुल भिन्न है, जो मन की किसी
प्रतिक्रिया-मात्र का रेखांकन करती है।" (मुक्तिबोध रचनावली, भाग-5, पृ. 212)
प्रसंगवश यह याद कर लेना अनुचित न होगा कि जिन दिनों हिंदी साहित्य क्षेत्र में संकीर्णतावादी रुझान के तहत 'नई कविता' एवं उस जमाने में रचे जा रहे नए गीतों के
बीच अनावश्यक द्विभाजकता का भ्रम पैदा करके दोनों ही रचनाभियानों को परस्पर विरोधी बताया जा रहा था, उस समय भी मुक्तिबोध के मन में कोई अस्पष्टता नहीं थी।
उन्होंने लिखा था : "मनुष्य जीवन का कोई अंग ऐसा नहीं है, जो साहित्याभिव्यक्ति ले लिए अनुपयुक्त हो। जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि एक विशेष शैली को दूसरी विशेष शैली
के विरुद्ध स्थापित करती है। गीतों का 'नई कविता' से कोई विरोध नहीं है और न 'नई कविता' को उसके विरुद्ध अपने को प्रतिष्ठापित करना चाहिए।" (मुक्तिबोध रचनावली,
भाग-5, पृ. 333)
देखा जाए तो उत्तरशती का गीतकाव्य एक प्रभावकारी रचनाभियान है, जो विरोध के बजाय पूरकता के अत्यंत विशिष्ट संबंध में 'नई कविता' और उसके बाद की समकालीन कविता से
संपृक्त रहा है। स्पष्ट ही यह पूरकता परिमाणमूलक न होकर गुणात्मक पूरकता है जो आमंत्रित या आरोपित नहीं हो सकती। यही वह बुनियादी बात है जिस उलझन को न सुलझा
पाने के कारण कई आलोचक 'नई कविता' और उसके बाद की कविता के समानांतर रचित नए गीतों की रचना-प्रक्रिया की जगह दोनों रचनाभियानों को परस्पर पूरक मानते रहें हैं।
जबकि वास्तविकता इससे नितांत भिन्न है। वस्तुतः दोनों के बीच पूरक संबंध दोनों की रचना-प्रक्रियाओं से भिन्न पहलुओं का मनोनीत संबंध रहा है, जिसके अभाव में शायद
कविता-मात्र की रचना-प्रक्रिया संपूर्ण नहीं हो सकती। सच तो यह है समकालीन कविता एवं गीत के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है और इनके पारस्परिक संबंध को
अन्योन्याश्रयी रूप में देखा जाना चाहिए।
स्व-नियंत्रित चिंतन-प्रक्रिया के तहत गीतकाव्य की रचनात्मक शक्ति, संभावना एवं वैशिष्ट्य को नजरअंदाज करते हुए प्रभाकर श्रोत्रिय ने लिखा है कि "गीत का
भावपरकता से स्वाभाविक संबंध है। कवि पर गीतिमत्ता का दबाव जितना अधिक होता है, उतना ही उसका जीवनानुभव, चिंतन और लक्ष्य आवेग से आच्छन्न हो जाता है। इससे
आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि नहीं उपजती जो प्रेक्षण, अनुभूति और कल्पना की निःसंग शल्य-क्रिया करती है। भाव-बोध के साथ मूल्य-बोध की दोहरी चेतना जो कारण की
जटिलता का अन्वेषण करती है, गीत की अभिवृत्ति नहीं है। इसीलिए गीतकार प्रायः उद्वेग, आकर्षण, लालसा, मनस्ताप, करुणा आदि की काल्पनिक अनुभूति से ग्रस्त रहता है।
गीत के रूपतंत्र से मुक्त हुए बिना किसी कवि के लिए काल्पनिक अनुभूतियों के दबाव से मुक्त होना प्रायः संभव नहीं होता।" (कालयात्री है कविता, पृ.119)
ध्यातव्य है कि अज्ञेय ने भी एक समय में संस्कृत के किसी छुटभैए आचार्य द्वारा कथित 'गीतं काव्येन हन्यते' की तर्ज पर गीत को 'गतानुगतिक रचना' कहकर उसकी महत्ता
पर प्रहार किया था : "विश्व का कोई भी साहित्य अपने गीतकारों को अपने काव्य में नहीं गिनता।" (आज का भारतीय साहित्य, पृ. 409) जबकि वर्ड्सवर्थ एवं कालरिज द्वारा
संपादित 'लिरिकल बैलेड्स' का विश्वसाहित्य में महत्व सर्वविदित है। इतना ही नहीं, उन्होंने 'आलवाल' में अपने समय के गीतकारों को कथावाचकों की परंपरा से संबद्ध
बताते हुए लिखा था : "वास्तव में आज का गीतकार न तो संगीत की परंपरा में है, न काव्य की परंपरा में। उसकी परंपरा आल्हा गानेवालों की या कथावाचकों की परंपरा है।
उनमें से अधिकतर स्वयं अपनी परंपरा को न पहचानने के कारण अपनी प्रतिभा का सही उपयोग नहीं करते हैं।" (पृ. 60)
वस्तुतः अज्ञेय की यह टिप्पणी अंतर्विरोधों से भरी है, क्योंकि विभिन्न सप्तकों में असंकलित उस समय के अनेक महत्वपूर्ण गीतकारों को छोड़ भी दें; तब भी इन सप्तकों
में ऐसी अनेक रचनाएँ संकलित हैं, जो मूलतः गीत हैं। स्वयं अज्ञेय की 'चिंता' में न केवल अनेक गीत हैं, बल्कि वहाँ उनका गद्य भी प्रगीतात्मक है। उनके एक गीत की
पंक्तियाँ इस संदर्भ में द्रष्टव्य हैं
प्यार के उन्माद से भर
पंडुकी भी स्वर बदलकर
सघन पीपल-डाल पर से
थी बुलाती प्रणय-सहचर
छा रहा सब ओर था
अनुराग का कलहास
वह मिलन की प्यास।
'दूसरा सप्तक' (1951) में जहाँ भवानी प्रसाद मिश्र, हरिनारायण व्यास, नरेश मेहता और धर्मवीर भारती आदि के गीत संकलित है; जो पूर्ववर्ती गीतों से भिन्न है, तो
'तीसरा सप्तक' (1959) में भी केदारनाथ सिंह ('धान गीत', 'वसंत गीत', 'फागुन गीत', 'विदा गीत'), प्रयाग नारायण त्रिपाठी आदि के साथ ही सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने
'सुहागिन का गीत' लिखकर गीत के साथ अपना संबंध स्थापित किया था और कहना न होगा कि इन रचनाकारों का तेवर कहीं से भी परंपरित नहीं है। दूसरे शब्दों में, अनुभूति
एवं अभिव्यक्ति, दोनों ही दृष्टियों से उपर्युक्त रचनाओं का दायरा भिन्न एवं विशिष्ट है।
काव्य के प्रसंग में गेयता, संगीतात्मकता एवं छंदोबद्धता को पिछड़ेपन की निशानी घोषित करने को आमादा आधुनिकतावादी समालोचकों को याद दिलाना शायद जरूरी हो कि
कदाचित गीतकाव्य की अभिग्रहण-प्रक्रिया और रचनात्मक प्रभाव को स्वीकार करते हुए बहुत पहले भारतेंदु हरिश्चंद्र ने लिखा था कि 'जितना काव्य को संगीत द्वारा सुनकर
चित्त पर प्रभाव होता है उतना साधारण शिक्षा से नहीं होता। इससे साधारण लोगों के चित्त पर भी इन बातों का अंकुर जमाने को इस प्रकार से जो संगीत फैलाया जाय तो
बहुत कुछ संस्कार बदल जाने की आशा है।' इतना ही नहीं, वे जन साधारण में नवीन संस्कार जगाने के लिए ग्रामगीतों के आदर्श पर गीत काव्य रचने के पक्षधर थे : 'ऐसे
गीत बहुत छोटे-छोटे छंदों में और साधारण भाषा में बनें, वरंच गँवई भाषाओं में और स्त्रियों की भाषा में विशेष हों। कजली, ठुमरी, खेमटा, कहरवा, अद्धा, चैती,
होली, साँझी, लावनी, जाँते के गीत, विरहा, चनैनी, गजल इत्यादि ग्रामगीतों में इनका प्रचार हो और सब देश की भाषाओं में इसी अनुसार हो।' (भारतेंदु, ग्रंथावली,
तीसरा भाग)
अपनी जमीन से गहरे जुड़े राष्ट्रीय साहित्य एवं संस्कृति के निर्माण में लोकगीतों की महती भूमिका पर प्रकाश डलते हुए भारत के महान सांस्कृतिक व्यक्तित्वों में एक
आनंद कुमारस्वामी ने भी लिखा है : "भारत इंग्लैंड के अनुभव से सीख सकता है। एक प्रगतिशील देश के रूप में इंग्लैंड ने जन-गीतों में निहित सार से प्रेरणा ली है।
ये गीत वे किसान गाते थे जिन्हें अशिक्षित समझा जाता था। एक समय इंग्लैंड ने जनता के इन गीतों की उपेक्षा की थी। यदि हमने भी अपने लोकगीतों में निहित निर्देशों
की अवहेलना की तो हमें भी सांस्कृतिक क्षीणता के युग से गुजरना पड़ेगा। लेकिन एक दिन हमें यह अवश्य स्वीकार करना होगा कि हमने एक महत्वपूर्ण चीज की अनदेखी की है।
हमने उन किसानों और अशिक्षितों के हृदय में बसने वालें गीतों की उपेक्षा की है जो शिक्षित लोगों से अधिक 'भारतीय' हैं। ...भारत के सुंदर भविष्य का निर्माण वही
कर सकते हैं जो भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप चीजों की अवश्यकता या अनावश्यकता परखते हैं।" (पूरनचंद्र जोशी : संस्कृति विकास और संचार क्रांति, पृ.172)
दरअसल, जो रचनाकार आम आदमी की अनुभूति की संस्कृति और अभिव्यक्ति के रूपप्रकारों से जितनी गहराई के साथ जुड़ा होगा, उसकी रचना उतनी ही स्वाभाविक, जीवंत एवं
संप्रेषणीय होगी। इस दृष्टि से उत्तरशती में रचित कुछ श्रेष्ठ जनगीतों को 'लोकगीतों की पैरोडी' कहकर सिरे से खारिज कर देने के बजाय उनके रचनात्मक स्रोत,
अभिप्राय तथा प्रभाव आदि का मूल्यांकन हिंदी आलोचना के समक्ष एक बड़ी चुनौती है।
उल्लेखनीय है कि सहृदय जब तक केवल पाठक रहता है, वह गीत में अंतर्निहित रागात्मक अनुभूति की संरचना को शिद्दत के साथ अपने अनुभव संसार का हिस्सा नहीं बना पाता,
लेकिन जैसे ही वह गीत की सांगीतिक प्रस्तुति का भोक्ता बनता है - अर्थात गीत का गायन या वादन आस्वादित करता है, वह गीतकार के स्वानुभूत अनुभव जगत का अनिवार्य
अंग बनने की प्रक्रिया में सम्मिलित हो जाता है। इसे रचनाकार और रचना- कर्म के साथ तादात्म्यता के रूप में विश्लेषित किया जाना चाहिए। यहीं पर पाठक/श्रोता का
तत्वांतरण सहृदय के रूप में हो जाता है और वह गीत का तत्क्षण सहभागी बन जाता है - जो मानवीय संवेदना के मर्म को महसूस कर, या भावन-सामर्थ्य की धरती पर खड़ा होकर
गीत का अभिग्रहण करने के दौरान रचना-प्रक्रिया का मात्र साक्षी नहीं, बल्कि अंग बन जाता है। इसी बात को अपने तईं रेखांकित करते हुए यतींद्र मिश्र ने लिखा है कि
"कोई भक्ति का पद हो या श्रृंगार का वर्णन, उसकी व्याख्या या टीका उतनी गहराई से लिखकर या बोलकर व्यक्त नहीं की जा सकती, जितनी उसको गाकर हो सकती है। किसी संत
का लिखा हुआ कोई सुंदर पद, सवैया जब गायक अपनी तन्मयता से राग में निबद्ध करके गाता है, तो अर्थ की व्यंजना बहुत दूर तक, बहुत गहरे और अनंत तक न सिर्फ अनुभूत,
बल्कि शंख के वलय की भाँति एक बड़ा सुर का वृत्त बनाती हुई उत्तरोत्तर उर्ध्वगामी आगे बढ़ती है, जो स्वर के धीमा होने पर भी कुछ देर तक बची रहती है। तुलसीदास का
'गाइएगणपतिजगबंदन' उतना अर्थागांभीर्य व्याख्या में नहीं देता, जितना उस क्षण देता है, जब कोई सांगीतिक व्यक्ति उसे गाता है।"
बहरहाल, कहना यह है कि केवल तथाकथित पाठक के रूप में किसी गीत को पढ़कर उसकी पंक्तियों में निहित अनुभूति की संरचना को महसूस करना ही नहीं, बल्कि व्याख्यायित
करना भी लगभग असंभव है, जिनकी संगीतमय आवृत्ति या गायन सुनकर गीतकार के अनुभव की प्रामाणिकता परिमाण-भेद से मानवीय संवेदना के साथ प्रबुद्ध एवं सहृदय पाठक और
श्रोता तक पहुँचती है। हिंदी आलोचना में कुछेक ऐसे उदाहरण जरूर मिलते हैं, जहाँ गीतकाव्य के मर्म को पकड़ने की छटपटाहट दिखाई देती है। उदाहरण के लिए सूरदास
द्वारा 'महारास' के प्रसंग में रचित एक पद पर रामविलास शर्मा की टिप्पणी उल्लेख्य है। पद इस प्रकार है -
अरुझी कुंडल लट, बेसरि सौं पीत पट, बनमाल
बीच आनि उरझे है दोउ जन।
प्राननि सौं प्रान, नैन नैननि अटकि रहे, चटकीली
छबि देखि लपटात स्याम घन
होड़ा-होड़ी नृत्य करें, रीझि-रीझि अंक भरैं,
ता-ता थेई-थेई उछटत हैं हरखि मन।
सूरदास प्रभु प्यारी, मंडली जुवति भारी, नारी कौ
आँचल लै-लै पोंछत हैं श्रमकन।
इस संगीतमयी रचना में आए उल्लास के अपूर्व चित्र पर रीझकर रामविलास शर्मा अपने मित्र केदारनाथ अग्रवाल को लिखते हैं : "कृष्ण के कुंडलों में राधिका की लट, राधा
की बेसर में कृष्ण का पीत पट उलझे (उलझा) हैं (है)। नृत्य घनीभूत है न! वनमाल में दोनों ही उलझ गए हैं। होड़ करके नाचते हैं। सामंती निषेधों की बेड़ियाँ पैरों में
नहीं हैं, इसलिए प्राक्-सामंती समाज की स्वच्छंदता के ताल पर नाच रहे हैं। प्राणों से प्राण, नैनों से नैनों का मिलना... रीझ-रीझ कर अंक भरना; ता-ता थेई-थेई
उछटत पर जब मृदंग पर थाप पड़े, तब नाद की नसेनी पर मन सुन्न महल पर पहुँच जाए। मंडली-जुवति है; अनेक नाचने वाले हैं। सामूहिक उल्लास। फिर समग्र क्रिया की पूर्ति
के फलस्वरूप आँचल से श्रम कन पोंछना रस-निष्पत्ति की पराकाष्ठा है।" (मित्र संवाद, पृ.164)
अशोक वाजपेयी ने उल्लेख किया है कि "प्रख्यात संगीतकार कुमार गंधर्व ने एक बार लाचारी तोड़ी राग की एक बंदिश का जिक्र करते हुए कहा था कि इतिहास अधूरा सच बताता
है, संगीत पूरे सच को पकड़ने की चेष्टा करता है। बंदिश थी : 'ऐ तूरुक बटमार, बरजोरी मोकों गरवा लगाय लेत'। कुमार गंधर्व कहते थे कि इतिहास में तो यही दर्ज है कि
तुर्क सैनिक भारतीय स्त्रियों के साथ जोर-जबरदस्ती करते थे। लेकिन इस बंदिश में उस सुख का भी संकेत है जो इस जोर-जबरदस्ती में मिलता था।" (कवि कह गया है, पृ.
210) एक अन्य संदर्भ में कुमार गंधर्व ने कहा है : 'राग तो नंगा होता है, उसे कपड़े हम पहनाते हैं।' स्पष्टतः यह गरिमामय वस्त्र उस गायन-योग्य शब्द-संरचना से
निर्मित होता है जिसका रचयिता या तो कोई गीतकार होता है या लोक। यदि गीत किसी शास्त्रीय राग-रागिनी में बड़े रचनाकार ने लिखा हो तो उसकी शब्द-संरचना का मर्म
परंपरानुमोदित दीक्षित कंठ से सुनने पर ही अनुभव किया जा सकता है। जबकि लोकगीतों का मर्म, बकौल हबीब तनवीर, 'कागज पर नहीं, गायक के कंठ में वास करता है।'
गीत-संगीत के प्रसंग में शास्त्र और लोक के अंतःसंबंध के मद्देनजर विख्यात शास्त्रीय गायिका गिरिजा देवी का स्मरण स्वाभाविक है। अपने एक साक्षात्कार-क्रम में
ठाकुर जयदेव सिंह के हवाले से वे कहतीं हैं : "शास्त्रीय गायन को लोक-संगीत ने ही बचाया है। जब हमारे यहाँ मुगलों का आक्रमण हुआ, तब उस समय कलाकार इधर-उधर हो
गए। एक शांतिपूर्ण वातावरण में ध्रुपद-धमार, भजन-कीर्तन की जो परंपरा चल रही थी उसमें मुगलों के आने के बाद काफी क्षति हुई कलाकारों ने दूसरों के घरों में शरण
पाई, कुछ ने गाना-बजाना छोड़ दिया, काफी क्षति हुई। कुछ खेती करने लगे, कुछ व्यापार में उतर आए। इस तरह स्वस्थ संगीत का वातावरण खत्म हो गया, मगर औरतों के कान
में जो गाने पड़े थे, उन्होंने जस-का-तस उसे याद रखा, फिर समय-समय पर वे स्त्रियाँ काज-प्रयोजन में इन्हें अपनी सुविधानुसार गाने लगीं और मुझे लगता है इसी तरह
संगीत विलुप्त होने से बचा रहा।" (यतींद्र मिश्र : गिरिजा, पृ.116)
रचनात्मक अभिप्राय एवं प्रभाव की दृष्टि से गीत की रचना-प्रक्रिया में शास्त्र-ज्ञान एवं लोक-संपृक्ति के कारण उत्पन्न अंतराल को त्रिलोचन और जानकीवल्लभ
शास्त्री के गीतों के विशेष संदर्भ में अपने तईं उजागर करते हुए रेवती रमण ने लिखा है कि "दोनों की रचना-प्रक्रिया में एक भीतरी समानता यह है कि ये अपने से
जोड़कर ही चीजों का, काव्य-वस्तु का रंग-रूप सँवारते हैं, लौकिक स्तर पर दोनों के शब्द-संयोजन में कोई विशेष फर्क नहीं, लेकिन भाव-पक्ष की परिणति को लेकर
जानकीवल्लभ शास्त्री निराला की अर्चना-अराधना वाले भक्त-रूप से जुड़ते हैं, उनकी प्रतिनिधि चिंता प्रेम-भावुकता को दार्शनिक तल पर पहुँचा कर गीत-संगीत को
आध्यात्मिक उपलब्धि में ढाल देती है। यह एक तरह से मध्यकालीन संत-भक्त कवियों की रचना-पद्धति है। दूसरी और त्रिलोचन भौतिकवादी-यथार्थवादी दिखने के प्रयत्न में
रोमैंटिक भाव-बोध के अंतर्गत ही संतुष्ट हो लेते हैं। उनके गीत भी आंतरिक जरूरत का कम आभास नहीं देते, पर जानकीवल्लभ शास्त्री का-सा निर्द्वंद्व और निश्चिंत
आत्मालाप वे नहीं लिख पाए।" (कविता और मानवीय संवेदना, पृ. 56) किंतु, भारतीय संगीत परंपरा का अपने आंतरिक कवित्वपूर्ण भोवोद्रेक से सामंजस्य बिठाते हुए
जानकीवल्लभ शास्त्री जिस गेय शब्द-संरचना का निर्माण करते हैं, उसकी रचना-प्रक्रिया पर यह टिप्पणी लागू नहीं होती। उदाहरण के लिए 'मेघ-रंध्र में मंद्र सांद्र
ध्वनि / द्रिम-द्रिम-द्रिम उन्मद मृदंग की' - जैसे गीतों की रचना-प्रक्रिया को विवेचित-विश्लेषित करना उस आलोचक के लिए नामुमकिन है जो संगीत के नाद-सौंदर्य की
बारीकियों से लगभग अपरिचित है।
इस संदर्भ में प्रसाद एवं निराला के गीतों की रचना-प्रक्रिया पर दृष्टि डालना समीचीन हो सकता है। जयशंकर प्रसाद गीत की निर्माण प्रक्रिया में अनुभूति के गहन
क्षणों में भी उपयुक्त भाषा की सार्थक भूमिका को विस्मृत नहीं करते। सघन अनुभूति के नितांत रचनात्मक क्षणों में भी शब्द-चयन, शब्द-लय, शब्द-ध्वनि का सायास चुनाव
संप्रेषण के प्रति गीतकार की जागरूकता को स्पष्ट करता है। इस बात को उनके गीत 'तुमुल कोलाहल कलह में मैं हृदय की बात रे मन' के विश्लेषण से समझा जा सकता है।
इस गीत की प्रथम पंक्ति से ही स्पष्ट है कि अनुभव की किस गहराई से यह रचना उद्भूत हुई है। वस्तुतः यह उस व्यक्ति द्वारा रचित गीत प्रतीत होता है, जो भारतीय
दर्शन में आए प्रकृति और मनुष्य की पारस्पारिकता में द्वंद्व की जगह समस्वरता या 'हारमनी' की खोज कर लेता है। समय के जिस काल खंड में प्रकृति और मनुष्य परस्पर
विरोधी भूमिका में व्याख्यायित किए जा रहे हों, विकसनशील मानवता की समृद्धि का पैमाना प्रकृति का नृशंस दोहन बन चुका हो, वहाँ गीतकार द्वारा मनुष्य और प्रकृति
की उदात्त समस्वर भूमिका का अंकन उसे भारतीय संस्कृति की अति प्राचीन चिंतन-सरणि का अनिवार्य अंग बनाता है। गीत की पहली पंक्ति में ही उस दर्शन की ओर संकेत किया
गया है। यह कोलाहल और कलह वह है जिसके संसार को छोड़ कर कभी नाविक को विकल्प खोजने के लिए कहा जा रहा था। यहाँ उल्लेखनीय है कि कहने वाला कोलाहल से अलग नहीं,
अपितु उसका भागी होकर ही हृदय की बात करना चाह रहा है, जिसे कवि ने मानवीय रूप में प्रस्तुत किया है। वह 'तुमुल कोलाहल' चाहे प्रकृति का हो या मानव-समाज का
कलहपूर्ण कोलाहल हो, हृदय की बात उसमें 'हारमनी' पैदा कर देती है। गीत की विभिन्न अंतराओं में एक क्रम है और ऐसा लगता है कि जैसे गीतकार अपने अस्तित्व और
व्यक्तित्व की भीतरी रचना को संवेदना की कई तहों में क्रमशः खोल रहा है। गीत के पहले टुकड़े में बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक अनुभव की परिपक्वता को गीतात्मक
रूपांतरण द्वारा कई सोपानों में रखा गया है। गीत के आरंभ में कुतूहल और विस्मय है। 'मलय की वात' शैशव की पुलक की तरह आ रही है तथा चेतना का थकना उस शैशव को धारण
करने वाले शिशु को जन्म देने वाली माता का प्रसव-पीड़ा से थकना है। इसकी रचनात्मक प्रतिध्वनि कालिदास के 'रघुवंश' में सुनी जा सकती है : 'पश्चिमात् यामिनी यामात्
प्रसादमिव चेतना'। रात्रि के अंतिम प्रहर में जैसे चेतना प्रसार पाती है वैसे ही इंदुमती ने वृद्धावस्था में पुत्र पाकर अपनी चेतना का प्रसार पाया। इस गीत में
कौतूहल और विस्मय की अवस्था के बाद आकर्षण का स्रोत, अभिलाषाओं के चित्र, मिलन-विरह की आँखमिचौली, धैर्य की गहराई, विषम बाधाओं की ध्वनि, चिंतन, अंतःसंघर्ष और
अंतर्द्वंद्व-जैसी यौवन से पौढ़ता प्राप्त करने तक की स्थितियों की क्रमिक अवस्थाओं का चित्रांकन और गीत के अंत में एक व्याप्ति एवं चरितार्थता प्राप्त करने की
पूरी प्रक्रिया का संकेत भी हुआ है। इस रचना की सर्वाधिक दुर्व्याख्येय पंक्तियों में से एक को लें -
पवन की प्राचीर में रुक,
जला जीवन जी रहा झुक;
इस पंक्ति की अंतर्वस्तु को यदि रंग-रेखाओं के सहारे उभारा जाए तो एक ऐसे कैदी का बिंब उभर सकता है जिसके लिए जो बंदीगृह है वह उसके मनःलोक से संबंद्ध हो सकता
है। यह 'पवन की प्राचीर' है, जो किसी राजा द्वारा निर्मित न होकर परंपराओं द्वारा निर्मित है, जिसमें बंदी झुककर दग्ध जीवन जीने के लिए अभिशप्त है। वस्तुतः
शब्दों में विरल रेखाओं से निर्मित इस रेखाचित्र में स्त्रीत्व की अत्यंत कलात्मक पारदर्शी छवि अंकित की गई है। यहीं पर प्रसाद मात्र एक गीत के माध्यम से
संपूर्ण भारतीय मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन-दर्शन को उदात्त रूप में प्रस्तुत कर देते हैं।
गीत का अनिवार्य संबंध गायन-क्रम में प्रयुक्त होनेवाले विभिन्न अंग-उपांगों से होता है। प्रसाद के गीतों पर सांगीतिकता अथवा राग-रागिनी की दृष्टि से विचार करने
पर स्पष्ट है कि यद्यपि उनके गीतों का संबंध गायन से है, तथापि उन्होंने भक्तिकालीन गीतकारों अथवा निराला की तरह अपने गीतों के संदर्भ में इस संबंध में कोई
स्पष्ट निर्देश नहीं किया है। फिर भी, 'बीती विभावरी जाग री' का वाचन-श्रवण करने वाले सहृदय जानते हैं कि यह गीत 'राग भैरवी' में बहुत ही सफलतापूर्वक गाया गया
है। कारण यह कि उसकी आंतरिक शब्द-संरचना, निकटस्थ अवयवों का संयोग और अर्थलय 'राग भैरवी' के नितांत उपयुक्त है। प्रातःकालीन राग को ऊषाकाल के चित्रण के साथ
संबद्ध कर देना गीतकार की रागात्मक और सांगीतिक मनोरचना का परिचायक है। और इसके गायन-क्रम में भैरवी की आत्मा को मूर्त करने के लिए गीतकार ने ध्वनि-तत्व का
सहारा लिया है। ऐसे तो 'अंबर-पनघट में डुबो रही ताराघट ऊषा नागरी' एक चित्र है, पर यह घड़े के जल मे डुबोए जाने से उत्पन्न जल की ध्वनि का चित्र है। यदि कोई इस
विभावरी को नदी-तट पर बीतता हुआ देखे तो उसे प्रतीत होगा कि नदी की प्रवहमान जलधारा में हवा की गति के अनुरूप जो अंतर आता चलता है, वही इस गीत में ध्वनित हो रहा
है। दूसरे शब्दों में, गीतकार जयशंकर प्रसाद इस रचना में ध्वनियों के नए प्रवर्तन के द्वारा रात्रि के बीत जाने और सुबह के आने का जो बोध पैदा करना चाहते है,
उसे भैरवी में जब गले से कई तरह की तानों के संकोच और विकुंचन, आरोह-अवरोह आदि के द्वारा जिन ध्वनियों के सहारे व्यक्त किया जाता है, वह 'भैरवी' के संदर्भ में
इस गीत के लिए अत्यंत उपयुक्त है।
जयशंकर प्रसाद के गीतों की अंतर्वस्तु में हमें वहाँ क्लासिकी यथार्थवाद के दर्शन होते हैं, जहाँ प्रकृति और मनुष्य के बीच की द्वंद्वात्मकता को कलात्मक ढंग से
उभारा गया है। उनके गीतों को इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए, क्योंकि प्रकृति का परिवेश उभारे बगैर प्रायः वे मानवीय सत्य को निरूपित या चित्रित नहीं करते हैं।
'उठ-उठ री लघु-लघु लोल लहर' गीत में यह बताया गया है कि विषमता और प्रकृति की नियामकता के बीच क्या संबंध है और मनुष्य की जीवंतता कैसे उन लहरों की तरह स्वयं को
चरितार्थ करती है।
निराला के 'बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु' अथवा 'सुख का दिन डूबे डूब जाय' सरीखे परवर्ती गीतों को अपवादस्वरूप छोड़ दें तो प्रसाद से भिन्न उनके अनेकानेक गीतों में
हमें अनुभव के प्रति अतिरिक्त मोह एवं अभिव्यक्ति के प्रति सामान्य पहलकदमी या कई बार अभिव्यक्ति के स्तर पर चमत्कार पैदा करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है।
नतीजतन उनके अनेक गीत पाठक एवं श्रोता को चुनौती देते-से प्रतीत होते है। उदाहरण के लिए जानकीवल्लभ शास्त्री द्वारा 'मंत्र गीत' के रूप में अभिहित निराला रचित
'रचना की ऋजु बीन बनी तुम' की पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं :
रचना की ऋजु बीन बनी तुम !
ऋतु के नयन नवीन बनी तुम !
पल्लव के उर कुसुम-हार सित,
गंध-पवन-पावन विहार नित,
मिलित-अंत नभ नील-विकल्पित
एक-एक से तीन बनी तुम !
चपल बाल क्रीड़ा अब अवसित,
यौवन के वन मदन नहीं श्रित,
प्रौढ़ प्राण से शाश्वत विगलित,
तुम जानो कब लीन बनी तुम !
उपर्युक्त दोनों अंतराओं में किसी अंतर्बंध के अभाव में सहृदय समझ नहीं पाता कि आखिर कैसे ये एक ही गीत के दो अंतराएँ हैं। दूसरे शब्दों में, वह गीतकार के अनुभव
के प्रति अतिरिक्त मोह से घनीभूत इस प्रकरण को तल तक स्पष्ट महसूस नहीं कर पाता। 'गीतिका' में संग्रहित कई गीतों के साथ ऐसी स्थिति घटित होती हुई दिखाई देती है।
प्रसाद एवं निराला के गीतों की रचना-प्रक्रिया पर दृष्टि डालने से जाहिर होता है कि प्रसाद के गीत जहाँ चित्रों का वहन करते हैं, वहाँ निराला के गीत ध्वनियों
का। स्पष्टतः 'बादल राग' में निहित नाद-सौंदर्य के मद्देनजर इसे अलग से समझाने की जरूरत नहीं है। दूसरी बात यह कि जहाँ प्रसाद किसी एक प्रतिमा को अपने गीत में
उत्कीर्ण करके उसे वहीं समाप्त नहीं करते, बल्कि अनेक छोटे चित्रों को परस्पर गूँथकर एक पूरा अर्थ-परिवेश रच देते हैं, वहाँ निराला अपने तमाम शाब्दिक एवं
अर्थजन्य परिवेश को एकत्र कर उन्हें अंग-अवयव की तरह जोड़ते हुए अपने संवेद्य की एक प्रतिमा खड़ी करते हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि शाब्दिक संरचना एवं
रचनात्मक प्रभाव की दृष्टि से निराला के गीत यदि आवयविक हैं तो जयशंकर प्रसाद के गीत प्रवहमान।
हिंदी समीक्षा ने एक लंबे समय तक 'कविता' और 'गीत' में द्विभाजकता ही नहीं देखी, बल्कि कई बार उन्हें परस्पर विरोधी तक घोषित किया। एक समय नामवर सिंह ने लिखा था
- 'मैं मानता हूँ कि समकालीन कविता लिरिक नहीं हो सकती, लिरिक से मेरा अभिप्राय आकारपरक नहीं है।' जबकि सच्चाई यह है कि कविता और गीत परस्पर विरोधी न होकर पूरक
है। वस्तुतः कविता की काव्यात्मकता को लिरिक से अलगा कर कतई नहीं देखा जा सकता। कारण यह कि कविता का लिरिक होना उसके कविता होने की बुनियादी शर्त है जो कदापि
निरस्त नहीं की जा सकती। एक बात यह भी कि कविता का लिरिकल होना राष्ट्रीयता, प्रगतिशीलता या प्रतिबद्धता के आड़े नहीं आता। अर्डोनो ने सही लिखा है कि 'प्रगीत
तत्वतः सामाजिक होता है। प्रगीत की पुकार का मर्म वही समझ सकता है जो उसकी आत्मपरकता में निहित मानवीयता की आवाज सुन पाता है।' (गरिमा श्रीवास्तव, संपादक :
उपन्यास का समाजशास्त्र, भूमिका)
आश्वस्त करने वाली बात यह है कि आगे चलकर अपने पूर्वाग्रह को तोड़ते हुए नामवर जी ने 'प्रगीत और समाज' शीर्षक निबंध में लिखा : "स्वीकार करना चाहता हूँ कि पंद्रह
वर्ष पहले कविता के नए प्रतिमान में कविता के प्रतिमान को व्यापकता प्रदान करने के लिए जब मैंने मुक्तिबोध की लंबी कविताओं-जैसी वस्तुपरक नाट्यधर्मी कविताओं को
भी विचार की सीमा में ले आने के लिए आग्रह किया था तो आत्मपरक प्रगीतधर्मी छोटी कविताओं में निहित सामाजिक सार्थकता की संभावनाओं का पूरा-पूरा एहसास न था।
...कितनी बड़ी विडंबना है कि जिस साहित्य में काव्योत्कर्ष के मानदंड प्रबंध काव्यों के आधार पर बने हों और जहाँ प्रबंध काव्य को ही व्यापक जीवन के प्रतिबिंब के
रूप में स्वीकार किया गया हो, उसकी कविता का इतिहास मुख्यतः प्रगीत-मुक्तकों का है, यही नहीं बल्कि गीतों ने जन-मानस को बदलने में क्रांतिकारी भूमिका भी अदा
की।" (वाद विवाद संवाद, पृ.108-109)
उपर्युक्त स्वीकारोक्ति के बावजूद अब तक हमारी आलोचना 'गीतकाव्य' के मूल्यांकन हेतु उपयुक्त निकष निर्मित नहीं कर सकी है। यदि यह कार्य भारतीय काव्यशास्त्र के
आचार्यों ने संपन्न नहीं किया तो कम से कम छायावाद के आलोचकों का इस ओर मुखातिब होना जरूरी था, क्योंकि छायावादी कवियों ने प्रभूत संख्या में श्रेष्ठ गीतों की
रचना की है। यह विचित्र बात है कि हम एक ही निकष पर 'पेशोला की प्रतिध्वनि' कविता और 'भारति जय विजय करे' गीत, दोनों की समीक्षा करते हैं। जबकि उपर्युक्त स्थिति
या नागार्जुन की 'मंत्र कविता' और 'धिन-धिन-धा धमक-धमक मेघ बजे' गीत का मूल्यांकन एक ही प्रकार के आलोचनात्मक निकष पर करना बेमानी है। चूँकि कविता से एक हद तक
भिन्न गीत की एक अलग रचनात्मक शर्त एवं समझ होती है, इसलिए हिंदी आलोचना-क्षेत्र में व्याप्त इस अंधसामान्यीकरण की प्रवृत्ति से छुटकारा पाकर हिंदी में
प्रस्तुत्य कला की आलोचना विकसित किए बगैर भारत की जातीय संस्कृति की जमीन को बचाए रखने में समर्थ पूर्ववर्ती गीतों के साथ-साथ इस तथाकथित उत्तर-आधुनिक दौर में
रचे जा रहे श्रेष्ठ गीतों के भी समुचित मूल्यांकन की प्रविधि का विकास असंभव है।